शनिवार, 7 अप्रैल 2012

हमसफर

मै चला अपने सफर तुम चले अपने सफर
जब चले हम साथ थे बन के निकले हमसफर

मंजिलें न एक थी न हम दीखते हमसफर 
कुछ अजीब सी डगर दोनों चले हम सफर

मोड़ दोनों के अलग राहें भी थी अलग अलग
अलगाव का था ये सफर कैसे थे हम हमसफर

मोड़ पर मिल जाओगे सामने नजर आओगे
सोचेंगे देखा कहीं था जब चले थे हम सफर

राह में अपनी कांटे थे, सब हमने ही छांटे थे
पग न तेरा डगमगाए  तुम चलो अपने सफर

मंजिल जो तुम पा लोगे सफर को निभा लोगे
सोचेंगे मकसद हुआ अब जो चले बन हमसफर
       

2 टिप्‍पणियां:

Arun sathi ने कहा…

साधु-साधु

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

हमसफर सदा ही महत्वपूर्ण व्यक्ति होता है, सुन्दर रचना।