मंगलवार, 17 अप्रैल 2012

सपने अपने ही न थे

जब सपने अपने ही न थे उनका जाना रोना क्या
बंद आँख में आते रहते डरते जो फिर खोना क्या

हम जो जीते उस हकीकत में जिसमे सब भोगना
खुशियाँ हों या होयें दुखी हम नयनो को है सोचना
मेरा दावा जी कर देखो जो सुख हर चाहो भोगना
क्यूँ कोसा करते हो जीवन थोड़े दुःख से होना क्या

खुद को मुसाफिर समझो पहले फिर सफर का लो मज़ा
सामने बैठा अपना न है कब छोड़ चले सब उसकी रजा
माथ हाथ धर तब तेरा सोचेगा मिली कब की यह सजा
जब तेरा कोई अपना न है खुद में रम छोड़ सब ह्या 

जो दीखता तुझे रात का सपना दिन में न था वो अपना
दिनभर मशक्त करता फिरता रात  में न चाहे जगना
जहाँ से उठाया छोड़ा वहीँ पर लड़ मर रहे अपना अपना
कज़ा ले जब संग चली तो काम न आवे कोई हकीम दवा

जब सपने अपने ही न थे उनका जाना रोना क्या
बंद आँख में आते रहते डरते जो फिर खोना क्या



1 टिप्पणी:

M VERMA ने कहा…

खुद को मुसाफिर समझो
नेक सलाह देती रचना