सोमवार, 7 जनवरी 2013

जहान से छुपा

जिस महफ़िल में भी हम गातें हैं
तुम उठ कर क्यों चले जाते हो
जिस महफ़िल में हम जाते नहीं
तुम ढूंढने क्यों वहाँ आते हो

दिल से मजबूर पर जुबां से दूर
पता सबको हैं फ़िर भी छुपाते हो
ये आँख मिचोली ये प्रेम की होली
खेल प्यार का हरपल खिलाते हो

दिल में कुछ और जुबां पर कुछ
दुनिया को तुम जो दिखाते हो
पर प्यार जो उतरा है चेहरे पर
उसे जहान से छुपा न पाते हो

     

2 टिप्‍पणियां:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

मन को भाया,
बहुत छुपाया,
किन्तु विवशता.
सम्मुख आया।

दिगम्बर नासवा ने कहा…

दिल में कुछ और जुबां पर कुछ
दुनिया को तुम जो दिखाते हो
पर प्यार जो उतरा है चेहरे पर
उसे जहान से छुपा न पाते हो ..

ये तो प्यार का कसूर है .. झलक आता है चेहरे पर ... वर्ना ...
अच्छी रचना है राजीव जी ...