मंगलवार, 8 जनवरी 2013

तुम बिन

आज भरे मन से
ना चाहता बिछड़ा जाता हूँ
तुम बोल दूजे के बोल रहे
अपने को एकाँकी पाता हूँ

जब गठ बंधन हुआ तन का
मन को क्यों ना बाँध सके
ताउम्र का  था संकल्प लिया
उस ह्रदय को ना जान सके
मरु में पानी सा जीवन
तुम संग मै जीता जाता हूँ

परछाईं तुम्हारी बनकर मै
चारों पहर डोला करता था
पर देख दूजों की परछाईं
हर संग हमको टटोला था
तुम संग रहकर भी तुम संग
खुद को खुद संग ना पाता हूँ

यौवन कब आया याद नही
कब केश पके याद नही
तुम संग देखूँ  अपने को
ऐसा कोई क्षण जायदाद नही
देख कर अब आईना मै
ठूँठ खड़ा रह जाता हूँ

तुम बिन मंजिल न सोची थी
चलूँ उस मंजिल की ओर अभी
थक कर अगर अब बैठ गया
तो ना पा सकूँगा ठौर कभी
प्रश्न मुझे यूँ घेरे खड़े
स्वंम झुझता जाता हूँ

1 टिप्पणी:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

समय बीतता, तुम बिन कैसे,
व्यक्त व्यग्रता हर दिन जैसे।