एक सफर पर निकला था
एकांकी मन सम्भला था
तभी तुम्हारी छदम आहट
मुझको मुझसे हिला गई
मंजिल न थी दूर कभी
बस कुछ कदम दूर थमी
पाने को था कदम बढाया
भटका फूल खिला गई
निश्चय अपना लक्ष्य था
पाना ही एक सत्य था
पर तुम एक ठोकर बनकर
लहू में पाँव सना गई
पूजा तुमको देवों संग
खुशियाँ बाँट हुए नंग
पर तुम जानकर जाते हुए
क्यूँ दुखती रग ही दबा गई
माँगा न था पूजा था
न तेरे सा कोई दूजा था
राजा थे अपनी चाह्त के
पर तुम भिखारी बना गई
चलो अब न कोई सपना है
न तुम सा कोई अपना है
एक बार फिर कमर कसी है
मंजिल को जो तुम भटका गई
एकांकी मन सम्भला था
तभी तुम्हारी छदम आहट
मुझको मुझसे हिला गई
मंजिल न थी दूर कभी
बस कुछ कदम दूर थमी
पाने को था कदम बढाया
भटका फूल खिला गई
निश्चय अपना लक्ष्य था
पाना ही एक सत्य था
पर तुम एक ठोकर बनकर
लहू में पाँव सना गई
पूजा तुमको देवों संग
खुशियाँ बाँट हुए नंग
पर तुम जानकर जाते हुए
क्यूँ दुखती रग ही दबा गई
माँगा न था पूजा था
न तेरे सा कोई दूजा था
राजा थे अपनी चाह्त के
पर तुम भिखारी बना गई
चलो अब न कोई सपना है
न तुम सा कोई अपना है
एक बार फिर कमर कसी है
मंजिल को जो तुम भटका गई
2 टिप्पणियां:
बहुत खूब रचना..
राजा थे अपनी चाह्त के
पर तुम भिखारी बना गई
इतनी भी निराशा क्या? बस आगे बढो। शुभकामनायें।वैसे कविता अच्छी है।
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