मंगलवार, 24 जुलाई 2012

छदम आहट

एक  सफर पर निकला था
एकांकी मन सम्भला था
तभी  तुम्हारी छदम आहट
मुझको मुझसे हिला गई

मंजिल न थी दूर कभी
बस कुछ कदम दूर थमी
पाने को था कदम बढाया
भटका फूल खिला गई

निश्चय अपना लक्ष्य था
पाना ही एक सत्य था
पर तुम एक ठोकर बनकर
लहू में पाँव सना गई

पूजा तुमको देवों संग
खुशियाँ बाँट हुए नंग
पर तुम जानकर जाते हुए
क्यूँ दुखती रग ही दबा गई

माँगा न था पूजा था
न तेरे सा कोई दूजा था
राजा थे अपनी चाह्त के
पर तुम भिखारी बना गई

चलो अब न कोई सपना है
न तुम सा कोई अपना है
एक बार फिर कमर कसी है
मंजिल को जो तुम भटका गई 

2 टिप्‍पणियां:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

बहुत खूब रचना..

निर्मला कपिला ने कहा…

राजा थे अपनी चाह्त के
पर तुम भिखारी बना गई
इतनी भी निराशा क्या? बस आगे बढो। शुभकामनायें।वैसे कविता अच्छी है।