समझना चाहा समझ ना सका
समय के स्वाभाव को
सब कुछ है पर मुझे जोत रहा
किसके वो अभाव को
मलहम तक ना मलने दे
हारे हमरे घाव पर
हँसता हुआ वो चलता जाता
छोड़ खेलन गोट धरी हुई
समय के स्वाभाव को
सब कुछ है पर मुझे जोत रहा
किसके वो अभाव को
खेल खेलता सदा जीतता
हर अपने वो दाव पर मलहम तक ना मलने दे
हारे हमरे घाव पर
तृष्णा हमरी और भडकती
लगता उसकी दया हुई हँसता हुआ वो चलता जाता
छोड़ खेलन गोट धरी हुई
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