बुधवार, 13 जून 2012

लिखने वाले कहाँ गये

लिखते थे जो लेख ऐसे
लगे नया साहित्य जैसे
आज तरसती लेखनी है
वो लिखने वाले कहाँ गये

हर्फों ने जिनके वर्कों पर
समाज सजा बसाया था
पीड़ा दूजे की सहन कर
पीड़ित का दर्द बताया था
वो पीड़ित अब कहाँ गये

रस को मथ अपने भीतर
रसिक को स्वाद चखाते थे
जिस रस में वो थे  माहिर
बस वही रसपान कराते थे
स्वंम पेलू अब कहाँ गये

आज के तुम लिखने वाले
मुझको थामे लिखते जाते
मै चलती जाती तुम चाहते
हर्फों पर अश्रू  जमते जाते
हर्फों के अर्थ अब कहाँ गये

लिखते थे पर न दिखे कभी
जब दिखे तो नयन बहे वहीँ
वो दर्द संजोते थे या अपनाते
बस मै लेखनी ही जान सकी
अर्थों के अर्थ अब कहाँ गये

1 टिप्पणी:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

काश साहित्य फिर से अपनी पूर्णता में बहे..