गुरुवार, 25 नवंबर 2010

प्रकृति बचाओ

निहार सुन्दरता धरा की
सपनो का तानाबाना बुना 
रंग हरा संजोयें हम कैसे 
ना ही कोई माध्यम चुना
पर्वतों  की रक्षक श्रंखलायें 
लुप्त हो धरा को नग्न कर
हमे हर पल चेताएँ जा रही
बस बहुत हुआ अब बस कर
क्यूँ दे घाव धरती का सीना 
मातृत्व को तू लज्जाता है  
तेरे अपने आयें पायेंगे क्या  
सोच क्यूँ तू व्यर्थ गवांता है
जल को जला रसायन बना  
कब तक तू उपर उड़ा पाएगा        
बादल जो जल भर लाते हैं  
उनको भी वंचित करवाएगा 
बिन भेदभाव जो वो बरसाते    
उनमे क्या स्वार्थ जगायेगा 
जंगल सागर कुएं की गागर 
सब कुछ तू यूँ ही गँवाएगा 
प्राकृतिक जो तू मुफ्त पाता 
कृत्रिम कर दे जग जायेगा 
राजीव संभल कर चल प्यारे    
अन्यथा करनी को पछतायेगा  

4 टिप्‍पणियां:

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

सन्देश देती अच्छी रचना

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

कृपया वर्ड वेरिफिकेशन हटा लें ...टिप्पणीकर्ता को सरलता होगी ...

वर्ड वेरिफिकेशन हटाने के लिए
डैशबोर्ड > सेटिंग्स > कमेंट्स > वर्ड वेरिफिकेशन को नो करें ..सेव करें ..बस हो गया .


आपकी यह पोस्ट आज के चर्चा मंच पर भी है

http://charchamanch.blogspot.com/2010/11/350.html

अनुपमा पाठक ने कहा…

प्रकृति के प्रति संवेदनशीलता का सन्देश देती रचना!
आभार!

Dorothy ने कहा…

प्रकृति को बचाए रखने की मुहिम के प्रति जागरूकता का संदेश देती, संवेदनशील और मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति. आभार.
सादर
डोरोथी.