निहार सुन्दरता धरा की
सपनो का तानाबाना बुना
रंग हरा संजोयें हम कैसे
ना ही कोई माध्यम चुना
पर्वतों की रक्षक श्रंखलायें
लुप्त हो धरा को नग्न कर
हमे हर पल चेताएँ जा रही
बस बहुत हुआ अब बस कर
क्यूँ दे घाव धरती का सीना
मातृत्व को तू लज्जाता है
तेरे अपने आयें पायेंगे क्या
सोच क्यूँ तू व्यर्थ गवांता है
जल को जला रसायन बना
कब तक तू उपर उड़ा पाएगा
बादल जो जल भर लाते हैं
उनको भी वंचित करवाएगा
बिन भेदभाव जो वो बरसाते
उनमे क्या स्वार्थ जगायेगा
जंगल सागर कुएं की गागर
सब कुछ तू यूँ ही गँवाएगा
प्राकृतिक जो तू मुफ्त पाता
कृत्रिम कर दे जग जायेगा
राजीव संभल कर चल प्यारे
अन्यथा करनी को पछतायेगा
4 टिप्पणियां:
सन्देश देती अच्छी रचना
कृपया वर्ड वेरिफिकेशन हटा लें ...टिप्पणीकर्ता को सरलता होगी ...
वर्ड वेरिफिकेशन हटाने के लिए
डैशबोर्ड > सेटिंग्स > कमेंट्स > वर्ड वेरिफिकेशन को नो करें ..सेव करें ..बस हो गया .
आपकी यह पोस्ट आज के चर्चा मंच पर भी है
http://charchamanch.blogspot.com/2010/11/350.html
प्रकृति के प्रति संवेदनशीलता का सन्देश देती रचना!
आभार!
प्रकृति को बचाए रखने की मुहिम के प्रति जागरूकता का संदेश देती, संवेदनशील और मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति. आभार.
सादर
डोरोथी.
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