बुधवार, 3 अगस्त 2016

एक परछाई सी रह गई



दोनों चैन से बेठे आँख खोल सोये थे
अधजगे अजीब से सपनो में खोये थे
जाते हुए अम्मा ने पूछा
खाने का डब्बा रख लिया, पानी तो नही रह गया
सारी पुस्तके रख ली कोई काम तो नहीं रह गया
बापू कमा पीठ झुका पूछे
बेटा तेरा सारा सामान आ गया कुछ और तो नही रह गया
थोड़े पैसे और रख ले देख लियो कुछ बाकी तो नही रह गया
बेटे ने फटफटी उठाई सामान बाँधा और बोला
अम्मा मै चला तुम देखना कुछ बाकी तो नही रह गया
अम्मा ने बापू को देखा देखा आँखों में पानी रह गया
दोनों की जिंदगी आशावादी सपनो में खोने लगी
हर रोज सुबह से सांझ
उसके जाने तक की याद संजोने लगी
खबर आई पुत्र, पुत्रवधू लाया
दूल्हा बना देखूं वही सपना सपना रह गया
जाने को एक कोडी ना इच्छाएं बढ़ना छोड़ी ना
देखें मुख वधु का और चाहें जल्द बने माँ
पुत्र का आया पैगाम अम्मा मै आता हूँ
तेरी बहु तुझे पूजना चाहे, तुझे यहाँ ले आता हूँ
अधुरा स्वपन पूरा होने को था
दोनों ने फिर आँख भर पूछा
सब मिल गया बस अब इच्छा में कुछ न रह गया
घर का चिराग आते ही बोला
बांधो बिस्तर चलो साथ अब यहाँ हमारा क्या रह गया
बापू बोला गाँव की मिट्टी पुरखो की घाटी
खेत खलियान घर का दालान
सब कैसे छोड़ दें अब यही तो बाकी रह गया
पुत्र बेच सारा सामान जमा कर पूंजी मिटा नामो निशान
दोनों को लाया संग पर दोनों थे हैरान देख बदले रंग
बोला बापू यहाँ बुजुर्ग इस घर में रहते तुमको यहीं रहना है
पत्नी को फुरसत नही अब माँ को करना और सहना है
दोनों के चेहरे का रंग उदा जो सदा चले थे संग संग
क्या इस दिन की इच्छा लिए जिए
अलग अलग होते सोचे थे अब बाकी तो कुछ नही रह गया
तभी घबराहट में छुटा पसीना दोनों आँखे भर बैठे थे
शहनाई गूंजे थी कानो में जान न थी रानो में
बेटी को कर बिदा बेटा होता के सपनो में खो गये थे
अगर ऐसा होता, तो कैसा होता   

बिदा कर पुत्री को ठंडी सांस ले बोले
बस अब कुछ इच्छा नही रह गयी  
जो चिरैया सी चहकी फुदकती डोले थी

सूना कर आँगन एक परछाई सी रह गई 

कोई टिप्पणी नहीं: